Monday, April 25, 2011

ABOUT GREAT CAST CHARAN (GADHVI)

         उद्भव
                चारणों का उद्भवन कैसे और कब हुआ, वे इस देश में कैसे फैले और उनका मूल रूप क्या था, आदि प्रश्नों के संबंध में प्रामाणिक सामग्री का अभाव है; परंतु जो कुछ भी सामग्री है, उसके अनुसार विचार करने पर उस संबंध में अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं।

                      चारणों की उत्पत्ति दैवी कही गई है। ये पहले मृत्युलोक के पुरुष न होकर स्वर्ग के देवताओं में से थे (श्रीमद्भा. 3।10।27-28)। सृष्टिनिर्माण के विभिन्न सृजनों से चारण भी एक उत्पाद्य तत्व रहे हैं। भागवत के टीकाकार श्रीधर ने इनका विभाजन विबुधा, पितृ, असुर, गंधर्व, भूत-प्रेत-पिशाच, सिद्धचारण, विद्याधर और किंनर किंपुरुष आदि आठ सृष्टियां के अंतर्गत किया है। ब्रह्मा ने चारणों का कार्य देवताओं की स्तुति करना निर्धारित किया। मत्स्य पुराण (249.35) में चारणों का उल्लेख स्तुतिवाचकों के रूप में है। चारणों ने सुमेर छोड़कर आर्यावर्त के हिमालय प्रदेश को अपना तपक्षेत्र बनाया, इस प्रसंग में उनकी भेंट अनेक देवताओं और महापुरुषां से हुई। इसके कई प्रसंग प्राप्त होते हैं। वाल्मीकि रामायण- (बाल. 17.9, 75.18; अरण्य. 54.10; सुंदर. 55.29; उत्तर. 4.4) महाभारत - (आदि. 1202.1, 126.111; वन 82.5; उद्योग. 123.4.5; भीष्म. 20।16; द्रोण. 124.10; शांति. 192.7-8) तथा ब्रह्मपुराण-(36.66) में तपस्वी चारणों के प्रसंग मिल जाते हैं। ब्रह्मपुराण का प्रसंग तो स्पष्ट करता है कि चारणों को भूमि पर बसानेवाले महाराज पृथु थे। उन्होंने चारणों को तैलंग देश में स्थापित किया और तभी से वे देवताओं की स्तुति छोड़ राजपुत्रों और राजवंश की स्तुति करने लगे (ब्रह्म पु. भूमिखंड, 28.88)। यहीं से चारण सब जगह फैले। महाभारत के बाद भारत में कई स्थानों पर चारण वंश नष्ट हो गया। केवल राजस्थान, गुजरात, कच्छ तथा मालवे में बच रहे। इस प्रकार महाराज पृथु ने देवता चारणों को "मानुष चारण" बना दिया। यही नहीं जैन धर्म सूत्रग्रंथ (महावीर स्वामी कृत पन्नवणा सूत्र) में मनुष्य चारण का प्रसंग मिलता है। कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में चारण कवियों के हँसने का उल्लेख किया है। (रा. त. 7.1122)।

                  चारणों का निवास क्षेत्र एवं सामाजिकताइन प्रसंगों द्वारा चारणों की प्राचीनता उनका कार्य तथा उनका सम्मान और पवित्र कर्तव्य स्पष्ट होता है। कर्नल टाड ने लिखा है : इन क्षेत्रों में चारण मान्य जाति के रूप में प्रतिष्ठित हैं। 1901 के जनगणना विवरण में कैप्टन बेनरमेन ने चारणों के लिये लिखा है : चारण पवित्र और बहुत पुरानी जाति मानी जाती है। इसका वर्णन रामायण और महाभारत में है। ये राजपूतों के कवि हैं। ये अपनी उत्पत्ति देवताओं से होने का दावा करते हैं। राजपूत इनसे सदैव सम्मानपूर्वक व्यवहार करते हैं। ये बड़े विश्वासपात्र समझे जाते हैं। इनका दर्जा ऊँचा है। ये अक्सर" बारहटजी " के नाम से पुकारे जाते हैं।

     मारवाड़ में रहनेवाले चारण मारू (माडिग्री) तथा कच्छ के(काछेला ) कच्छा कहलाते हैं। उपर्युक्त उद्धरणों के अनुसार चारण जाति देवता जाति थी, पवित्र थी, जिसको सुमेर से हिमालय पर और हिमालय से भारत में लाने का श्रेय महाराज पृथु को है। यहीं से ये सब राजाओं के यहाँ फैल गए। चारण भारत में पृथु के समय से ही प्रतिष्ठित रहे हैं। परंतु आधुनिक विद्वान् इसे सत्य नहीं मानते। श्री चंद्रधर शर्मा लिखते हैं : ब्राह्मणों के पीछे राजपूतों की कीर्ति बखाननेवाले चारण और भाट हुए (ना. प्र. प., भाग 1, पृ. 229-231, सं. 1997)।

डा. उदयनारायण तिवारी ने अपने ग्रंथ वीरकाव्य में चारणों पर थोड़ा सा प्रकाश डाला है। उसमें वे पीटर्सन की रिपोर्ट का जिक्र मुरारी कवि के श्लोक में उद्धृत शब्दों - चारणगीत और ख्यात का विश्लेषण करते हुए उनका समय 8वीं 9वीं शताब्दी तक मानते हैं। हरि कवि के श्लोकसंग्रह सुभाषित हारावली से चारण संस्कृत कवियों के समकालीन ठहरते हैं, जिसमें डा. तिवारी की सहमति नहीं है। पं. हरप्रसाद शास्त्री चारणों का काल 15वीं शताब्दी का अंतिम भाग मानते हैं। लेकिन 11वीं, 12वीं, और 13वीं शताब्दी के हस्तलिखित ग्रंथों में चारण शैली का प्रयोग किया गया है। सौराष्ट्र में 12वीं शताब्दी में हुए जयसिंह के राज्यकाल में भी चारण थे। "अचलदास खीची री वचनिका" तथा "ढोला मा डिग्री" जैसे लोककाव्यों में भी चारणों की चर्चा मिल जाती है। डा. तिवारी ने चारणों के 120 कुलों की सूचना दी है और उनके अन्य कुलों की उत्पत्ति ब्राह्मणों तथा राजपूतों से बताई है। फिर भी समय और इन कुलों के उद्भव के संबंध में अनिश्चितता है। लेकिन यह निश्चित है कि(मारू ) माडिग्री चारण राजस्थान के श्रृंगार रहे हैं तथा उनका समय पर्याप्त प्रचीन रहा होग। यों 15वीं शताब्दी से उदयपुर, बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, कोटा, बूँदी आदि लगभग सभी राजस्थानी राजकुलों में चारण कवियां की बहुत सम्मानित परंपरा रही है। राजा लोग चारणों का तथा उनके काव्यों का अत्यधिक सम्मान करते रहे हैं, यहां तक कि उन्हें लाख पसाव करोड़ पसाव, जागीरें, सम्मान, पदक, उपाधियाँ आदि देकर अपना काव्यप्रेम प्रकट करते रहे हैं। जोधपुर के महाराज मानसिंह ने तो चारणों के लिये ही यह छंद बनाया था :

करण मुहर महलीक क्रतारथ परमारथ ही दियण पतीज

चारण कहण जथारथ चौड़े चारण बड़ा अमोलक चीज

           चारण हिंदू हैं, वे किसी संप्रदायविशेष से संबंधित नहीं है1 करणी उनकी कुलदेवी हैं। बीकानेर के पास उनका मंदिर है। आज भी ये "यमाताजी" कहकर ही बात करते हैं। ये "माता" के पूजक और शाक्त हैं।

        चारणों ने पर्याप्त साहित्यसृजन किया है। 15वीं शताब्दी के जोधायन से लेकर वंशभास्कर जैसे ग्रंथों की रचना का श्रेय चारणों को ही है। डिंगल शैली और गीतिरचना चारणों की मूल विशेषता कही जा सकती है। माडिग्री चारण आज भी सैकड़ों हजारों छंद कंठस्थ किए रहते हैं। परंतु इतनी बड़ी परंपरा होते हुए भी चारण अब अपने कर्तव्य में शिथिल होते जा रहे हैं।

    भाट 
       भाट चारण के समान भाट (संस्कृत 'भट्ट' से व्युत्पन्न शब्द) भी काव्यरचना से संबंधित हैं लेकिन इनके विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। भाट शब्द भी भाट जाति का अवबोधक है। राजस्थान में चारणों की भाँति भाटों की जातियाँ है। उत्तर प्रदेश में भी इनकी श्रेणियाँ हैं, लेकिन थोड़े बहुत ये समस्त उत्तर भारत में पाए जाते हैं। दक्षिण में अधिक से अधिक हैदराबाद तक इनकी स्थिति है। इनके वंश का मूलोद्गम क्या रहा होगा, यह कहना कठिन है। जनश्रुतियों में भाटों के संबंध में कई प्रचलित बातें कही जाती हैं। इनकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और विधवा ब्राह्मणी माता से हुई बताई जाती है। नेस्फील्ड के अनुसार ये पतित ब्राह्मण थे, बहुधा राजदरबारों में रहते, रणभूमि के वीरों की शौर्यगाथा जनता को सुनाते और उनका वंशानुचरित बखानते थे। किंतु रिजले का इससे विरोध है। पर इन बातों द्वारा सही निर्णय पर पहुँचना कठिन है। वस्तुत: यह एक याचकवर्ग है जो दान लेता था।

          विद्वानों की मान्यता है कि भाट लोग भी चारणों की भाँति प्राचीन हैं। परंतु यह सच नहीं है। असल में यह जाति है जो स्तुति करने से अधिक वंशक्रम रखती है और उसे अपने आश्रयदाताओं को सुनाती है। कहते हैं, चारण तो कच्छ में ही हैं पर भाट सर्वत्र पाए जाते हैं, विशेषकर जोधपुर, बीकानेर, शेखाबाटी आदि में भाटों का पर्याप्त प्रभाव है, मालवा में भी भाट अधिक हैं। ये बातें सही हो सकती हैं, परंतु ये सब भाट वे नहीं है जिनका काम साहित्यसृजन रहा है। चारण तो केवल राजपूतों के ही दानपात्र होते हैं, पर भाट सब जातियों से दान लेते हैं। ऐसी स्थिति में भाटों की जातियाँ राजस्थान में सैकड़ों हैं। यद्यपि भाटों में कुछ अच्छे कवि हो गए हैं, पर सभी भाट कवि नहीं हैं। राजस्थान में प्रत्येक जाति के अपने भाट मिल जाएँगे। भाटों के संबंध में बड़ी विचित्र बातें उपलब्ध होती हैं। एक दोहा उनके अंतर को स्पष्ट करने में पर्याप्त हैं :

भाट  टाट  अन  मेडरी  हर  काहू  के  होय।

पर चारण बारण मानसी जे गढपतियों के होय।।

           चारणों के भी भाट होते हैं। रामासरी तहसील साजत में चारणों के भाट चतुर्भुज जी थे। हरिदान अब भी चारणों के भाट हैं। भाटों के संबंध में एक कथा प्रचलित है। जोधपुर के महाराज मानसिंह महाराज अहमदनगर (ईडर) से तख्तसिंह को गोद लाए। तख्तसिंह के साथ एक भाट आया जिसका नाम बाघाजी भाट था। यहाँ लाकर चारणों को नीचा दिखाने के लिये उसे कविवर की पदवी दी। दो गावँ भी दिए। परंतु बाघा को कविता के नाम पर कुछ भी नहीं आता था। आजकल उसी बाघा के लिये राजस्थान में यह छप्पय बड़ा प्रचलित है :

जिण बाघे घर जलमगीत छावलियाँ गाया।

जिण बाघे घर जलम थरों घर चंग घुराया।।

जिण बाघे घर जलम लदी बालम लूणाँ री।

जिण बाघे घर जलम गुँथी तापड़ गूणां री।।

बेला केइ बणबास देओ सारा ही हूनर साझिया।

गत राम तणी देखो गजब बाघा कविवर बाजिया।।

          इस तरह इस छप्पय में बालदिया चंग बजानेवाले, छावलियाँ गानेवाले, तापड़ों की गूण गूँथनेवाले, बिणजोर, बासदेव के स्वाँग लानेवाले, काबडिया, तथा कूगरिया (मुसलमान), आदि अनेक भाट पेशों के अनुकूल भाट बने हुए हैं। डिंगल साहित्य में चारणों की भाँति कोई भी गीत या छंद भाटों द्वारा लिखा हुआ नहीं मिलता, ऐसी स्थिति में भाटों का नाम चारणों के साथ कैसे लिया जाने लगा, यह समझ में नहीं आता। निश्चित रूप से यह चारण जाति को उपेक्षित करने लिये किसी चारणविरोधी का कार्य रहा होगा। अन्यथा वंशावलियाँ पढ़कर भीख माँगनेवाले प्रत्येक पेशा और व्यापार करनेवाले सैकड़ों प्रकार की जातियों के विविध भाटों की क्या चारणों से समता हो सकती हैं ?

     कविराज राव रघुबरप्रसाद द्वारा लिखित और प्रकाशित भट्टाख्यानम् नामक छोटी सी पुस्तक में कवि ने खींचतानी से प्रमाण जुटाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भाट शब्द ब्रह्मभट्ट से बना है, उसे ब्रह्मराव भी कहा गया है। भट्ट जाति की उत्पत्ति का प्रतीक पुरुष ब्रह्मराव था जिसे ब्रह्मा ने यज्ञकुंड से उत्पन्न किया था। भाट स्वयं को कभी सूत, मागध और वंदीजन कहकर अपने को सरस्वतीपुत्र कहने लगते हैं और कभी अग्निकंुड से उद्भूत बताते हैं।

     भाट लोग भाटों और ब्राह्मणों में कोई अंतर नहीं मानते, परंतु यह बात अवैज्ञानिक लगती है। यों भी ब्राह्मण भाट की उत्पति एक होने का कोई तुक नहीं।

    उनका यह भी कहना है कि वे राव हैं। परंतु चारण राव की भाँति भाट राव आज तक कहीं उपलब्ध नहीं होते। हाँ, बोलचाल में आज भी राजस्थान में भटैती तथा भटैती शब्द बड़े प्रचलित हैं। मेवाड़ में तो भटैती पंचायत करने को भी कहते हैं और भटैत पंच को। साथ ही जो आदमी बही पढ़ता है वह भी भटैत कहलाता है। लगता है, भटैती करनेवालों का नाम इसी कारण भाट हो गया होगा। आगे चलकर भाटों ने चारणों में अपने कर्तव्य के प्रति शिथिलता देखी तो उन्होंने कविकर्म प्रारंभ कर दिया होगा। यों भी भाटों में कुछ कवि अच्छे हुए हैं। इसलिये चारणों के साथ साथ भाटों का भी नाम लिया जाने लगा है। अन्यथा साहित्य के क्षेत्र में जैसा योगदान चारणों का है वैसा भाटों का नहीं।

      पूर्वोत्तर भारत के भाट कट्टर हिंदू है। वे वैष्णव शाक्त हैं। शिव की पूजा वे गौरीपति के रूप में करते हैं। बड़े वीर, महावीर और शारदा इनके देवता हैं। इनमें भवानी या देवी की भी पूजा प्रचलित है। उत्तरप्रदेश के पूर्वी जिलों में मुस्लिम धर्मावलंबी भाट भी पाए जाते हैं। कहा जाता है, ये शहाबुद्दीन गोरी के समय में मुसलमान बना लिए गए थे। इनमें प्रचलित रीति रिवाजों पर हिंदू रीतियों की पूरी छाप है। इनकी कुछ जातियाँ पद्यगीत बनाकर भीख माँगती है। बिहार में उनकी सामाजिक धार्मिक स्थिति सामान्य हिंदुओं से किंचित् भिन्न और निम्न है। पूर्वी बंगाल के भाट अधिकांशत: शक्तिपूजक हैं।

6 comments:

  1. nice work

    you can also visit a

    apnocharansamaj.blogspot.com

    where you find amazing poets and some nice things about us.....
    by jayvant gadhavi

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  2. ur attempt is gud sir but u have foccused only on a single aspect of charans, that is poetry, u hve ignored an important aspect which is bravery and self sacrifice of charans, of which history is full of evidences...charans were not only poets or chronologers but brave warriors and better leaders....anyway u r wirk is gud

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  3. jeeba jee dekha jaye to lagbhag sabhi jagah ke charno ne apna charnatav chhord diya hai par sabhi ne nahi ye bhi nahi bhulna chahiye . is liye isme se 1 line jo ki gujrat je charno ne anpna charanatav chhord diya hai plz delete kar dijiye .
    jmj.

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    1. SIR
      JAI MATAJIRI MERA MAT KISI KI BHAWANA KO AAHAT KARNA NAHI THA YE BAAT DUNIA KI MANI HUI WEBSITE WIKI PAR LIKHI HAI MAI BHI ES KO NAHI MANATA HOO ESLIYE ESE DLT KAR DIYA HAI

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    2. Jai mataji ri jeeba sb.
      devi putra hi ho aap saakshat charntav.. Aaj ra rajpoot devi bhakti devi stuti nahii jaane. Kese seekhit n dikseet kare...


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